इंदिरा गांधी की आवाज में नागरवाला ने ठगे 60 लाख

इंदिरा गांधी

द ग्रेट थिफ नटवरलाल को तो आप जानते ही होगे कैसे ये दुनिया को बेवकुफ बना कर लाखों की चोरी कर लेता है यहाँ तक की ताजमहल को भी बेचने की कोशिश करता है एसी हीं एक किस्सा है पीएम इंदिरा गाँधी की सिर्फ आवाज पर सीबीआई ने 60 लाख रुपए गवा दिए थे। ये बात बांग्लादेश युद्ध के दौरान की है जब इंदिरा गांधी के नाम पर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने बांग्लादेश के बाबू को 60 लाख रूपये दे दिए।

24 मई, 1971 की सुबह स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की संसद मार्ग ब्रांच में कोई खास गहमागहमी नहीं थी। दिन के बारह बजने वाले थे। बैंक के चीफ कैशियर वेद प्रकाश मल्होत्रा के सामने रखे फोन की घंटी बजी। फोन के दूसरे छोर पर एक शख्स ने अपना परिचय देते हुए कहा कि वो प्रधानमंत्री कार्यालय से प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव पीएन हक्सर बोल रहे हैं।

पीएन हक्सर ने कहा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को बांग्लादेश में एक गुप्त अभियान के लिए 60 लाख रुपये चाहिए। उन्होंने मल्होत्रा को निर्देश दिए कि वो बैंक से 60 लाख रुपये निकालें और संसद मार्ग पर ही बाइबल भवन के पास खड़े एक शख्स को पकड़ा दें। ये सारी रकम सौ रुपये के नोटों में होनी चाहिए। मल्होत्रा ये सब सुन कर थोड़े परेशान से हो गए।

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तभी प्रधानमंत्री कार्यालय से बोलने वाले उस व्यक्ति ने मल्होत्रा से कहा कि लीजिए प्रधानमंत्री से ही बात कर लीजिए। इसके कुछ सेकेंडों बाद एक महिला ने मल्होत्रा से कहा कि और कहा आप ये रुपये ले कर खुद बाइबिल भवन पर आइए। वहां एक शख्स आपसे मिलेगा और एक कोड कहेगा, ‘बांग्लादेश का बाबू’। आपको इसके जवाब में कहना होगा ‘बार एट लॉ’।इसके बाद आप वो रकम उनके हवाले कर दीजिएगा और इस मामले को पूरी तरह से गुप्त रखिएगा।

कोडवर्ड बोल कर पैसे लिए

इसके बाद डिप्टी कैशियर से 60 लाख मंगवाकर मल्होत्रा एक बक्से में भरते हैं और उसे बैंक की गाड़ी में डलवा देते हैं। मल्होत्रा खुद ड्राइवर की सीट पर बैठकर गाड़ी को बैंक से कुछ दूर ले जाते हैं। यहां एक आदमी गाड़ी के पास आता है। मल्होत्रा पूछते हैं, बांग्लादेश के बाबू तुम ही हो? दूसरे तरफ से जवाब आता है, ‘बार एट लॉ’| कोडवर्ड कंफर्म हो चुका था।

मल्होत्रा उस आदमी को अपनी गाड़ी में बिठा लेते हैं। गाड़ी पंचशील मार्ग के जंक्शन पर पहुंचती है और बांग्लादेश का बाबू कैश का बक्सा लेकर गाड़ी से उतर जाता है। साथ ही मल्होत्रा से कहता है, पीएम हाउस जाकर वाउचर ले लेना। मल्होत्रा पीएम हाउस पहुंचते हैं, लेकिन इंदिरा वहां नहीं थी। इसके बाद वो संसद भवन का रुख करते हैं। वहां भी उनकी इंदिरा से मुलाक़ात नहीं हो पाती।

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इस दौरान बैंक में डिप्टी हेड कैशियर रुहेल सिंह, एक अलग पशोपेश में थे। डेढ़ घंटे से मल्होत्रा और बैंक के 60 लाख रूपये गायब थे।उन्होंने कुछ देर इंतज़ार किया लेकिन जब मल्होत्रा नहीं लौटे तो अपने सीनियर्स तक ये बात पहुंचा दी। सीनियर्स के कहने पर उन्होंने पुलिस में रपट लिखवाई।

 

ऑपरेशन तूफान

यसबीआई बैंक सीनियर्स के कहने पर रपट लिखवाई मामला पुलिस में पहुंचा और वहां से पत्रकारों के पास। जल्द ही पूरे शहर में हल्ला हो गया कि यसबआई में 60 लाख का डाका पड़ गया। उप पुलिस अधीक्षक DK कश्यप की लीडरशिप में एक टीम का गठन होता है।और पुलिस पैसों की खोजबीन शुरू करती है। ऑपरेशन को नाम दिया गया था, ‘ऑपरेशन तूफ़ान’. पुलिस ने सबसे पहले उस टैक्सी की खोज शुरू की जिसमें पैसे लूटने वाला बैंक की कार से उतरने के बाद बैठा था। टैक्सीवाले ने पुलिस को बताया कि उस आदमी ने सारा पैसा एक सूटकेस में डाला और टैक्सी को पुरानी दिल्ली ले गया। उतरते हुए उसने टैक्सी वाले को 500 रूपये भी दिए। इस तरह पूछताछ करते हुए देर रात पुलिस ने अभियुक्त को एक धर्मशाला से पकड़ा और उसके पास से पूरे 60 लाख रूपये भी बरामद कर लिए।

देर रात प्रेस कांफ्रेंस करते हुए पुलिस ने पूरी कहानी पत्रकारों को बताई कि कैसे रुस्तम सोहराब नागरवाला नाम के एक शख्स ने इंदिरा गांधी की आवाज की नक़ल की। और कैशियर से पैसे लूट लिए‌।

ध्यान देने वाली कुछ बातें

नागरवाला को फेसिअल पैरालिसिस यानी की चेहरे का लकवा की दिक्कत थी। उसे बोलने में भी दिक्कत होती थी। इसके बावजूद उसने इंदिरा की हूबहू आवाज निकाल ली, ये बात किसी को हजम नहीं हुई। कुछ और सवाल भी थे। मसलन, पैसे किसके अकाउंट में से निकाले गए थे? इतने बड़े बैंक का एक अफसर क्या सिर्फ एक फोन पर 60 लाख देने को तैयार हो गया था। और क्या ये सब पहली बार हो रहा था? क्योंकि जिस तरह से पैसा दिया गया, उससे लग रहा था कि यूं फोन पर फंड रिलीज करना आम बात थी। बहरहाल ये सब तहकीकात आगे होती, उससे पहले नागरवाला पर केस चलना था। नागरवाला ने अपना जुर्म कबूलते हुए कहा कि उसने हाथोंहाथ ये प्लान बनाया ताकि बांग्लादेश की हालत पर ध्यान दिला सके।

नागरवाला कबूल किया जुर्म

27 मई, 1971 को नागरवाला ने अदालत में अपना जुर्म कबूल कर लिया। उसी दिन पुलिस ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के पी खन्ना की अदालत में नागरवाला के खिलाफ मुकदमा दायर किया। शायद भारत के न्यायिक इतिहास में ये पहली बार हुआ था कि किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किए जाने के तीन दिन के अंदर उस पर मुकदमा चला कर सजा भी सुना दी गई।

रुस्तम नागलवाला को चार साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई और 1000 रुपये जुर्माना भी किया गया, लेकिन इस घटना की तह तक कोई नहीं पहुंच पाया। नागरवाला ने अदालत में ये कबूला कि उसने बांग्लादेश अभियान का बहाना बना कर मल्होत्रा को बेवकूफ बनाया था, लेकिन बाद में उसने अपना बयान बदल दिया और फैसले के खिलाफ अपील कर दी। उसकी मांग थी कि इस मुकदमे की सुनवाई फिर से हो, लेकिन 28 अक्तूबर, 1971 को नागरवाला की ये मांग ठुकरा दी गई।

नागरवाला जेल में था। लेकिन तमाम तरह के सवाल इस केस में बाकी थे। इसलिए पुलिस अपनी जांच में लगी रही। कुछ ही हफ़्तों बाद ये केस और बार सुर्ख़ियों में आया जब 20 नवंबर, 1971 को इस केस को लीड कर रहे SSP डीके कश्यप की एक कार दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। हादसा तब हुआ जब कश्यप अपने हनीमून को जा रहे थे।

इस बीच नागरवाला ने एक साप्ताहिक अखबार करंट के एडिटर डी एफ़ कराका को पत्र लिखकर कहा कि वो एक इंटरव्यू देना चाहते हैं। कारका और नागरवाला दोनों पारसी कम्युनिटी से आते थे।इसलिए नागरवाला को उन पर भरोसा था।नागरवाला ने एक ऐसा ही खत अपने वकील RC माहेश्वरी को भी लिखा था।

बकौल माहेश्वरी, नागरवाला उन्हें साल की सबसे बड़ी खबर देने वाला था। लेकिन इनमें से कुछ भी नहीं हुआ। डी एफ़ कराका उन दिनों बीमार थे, इसलिए उन्होंने नागरवाला का इंटरव्यू लेने अपने असिस्टेंट को भेजा। लेकिन नागरवाला ने असिस्टेंट को इंटरव्यू देने से इंकार कर दिया। इस बीच बांग्लादेश युद्ध की शुरुआत हुई और भारत जीत गयाा। नागरवाला की खबर पुरानी हो गई। वो लगातार अपने केस की सुनवाई के लिए कोशिश करता रहा लेकिन मार्च 1972 में दिल का दौरा पड़ने से उसकी भी मौत हो गई।

जगनमोहन रेड्डी आयोग का गठन

ये मामला दोबारा उठा जब 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने इस पूरे वाकये की जांच के लिए जगनमोहन रेड्डी आयोग का गठन किया। आयोग ने इस मामले में 820 पेज की एक रिपोर्ट पब्लिश की। रिपोर्ट में आयोग ने सीधे तौर पर इंदिरा गांधी पर कोई इल्जाम नहीं लगाया। लेकिन ये जरूर कहा कि उनकी सरकार के अधिकारियों ने इस केस की जांच में अड़ंगे डाले।

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बाद में अखबारों में इस तरह की अपुष्ट खबरें छपीं कि ये पैसा रॉ के कहने पर बांग्लादेश ऑपरेशन के लिए निकलवाया गया था। रॉ पर एक किताब ‘मिशन आरएंड डब्लू’ लिखने वाले आर के यादव लिखते हैं कि ‘उन्होंने इस संबंध में रॉ के पूर्व प्रमुख रामनाथ काव और उनके नंबर दो के संकरन नायर से पूछा था और दोनों ने इस बात का जोरदार खंडन किया था कि रॉ का इस केस से कोई लेनादेना था।’ उन अधिकारियों ने इस बात का भी खंडन किया था कि रॉ का स्टेट बैंक में कोई गुप्त खाता था।

इंदिरा गांधी की मौत के दो साल बाद हिंदुस्तान टाइम्स के 11 और 12 नवंबर के अंक में ये आरोप लगाया गया था कि नागरवाला रॉ नहीं बल्कि सीआईए के लिए काम करता था और इस पूरे प्रकरण का मुख्य उद्देश्य इंदिरा गांधी को बदनाम करना था, खासतौर से उस समय जब उनकी बांग्लादेश नीति निक्सन प्रशासन को बहुत नागवार लग रही थी। लेकिन इस आरोप के समर्थन में कोई साक्ष्य नहीं पेश किए गए थे और इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया गया था कि एक बैंक के कैशियर ने बिना किसी दस्तावेज के इतनी बड़ी रकम किसी अनजान शख्स को कैसे हवाले कर दी थी।

हालांकि ठगी के बाद पांच हजार रुपये छोड़ कर पूरे 59 लाख 95 हजार रुपये बरामद हो गए थे और वो पांच हजार रुपये भी मल्होत्रा ने अपनी जेब से भरे थे। बैंक को इससे कोई माली नुकसान नहीं पहुंचा था लेकिन इससे उसकी खराब हुई छवि के कारण स्टेट बैंक ने मल्होत्रा को डिपार्टमेंटल इनक्वाएरी को बाद नौकरी से निकाल दिया था। दिलचस्प बात ये है करीब 10 साल बाद जब भारत में मारुति उद्योग की स्थापना हुई थी तो तत्कालीन सरकार ने वेद प्रकाश मल्होत्रा को इस कंपनी का चीफ अकाउंट्स ऑफिसर बना दिया था।

ज्यादा जानकारी के लिए ये वीडियो देखें

https://youtu.be/q7Wgvjq4w9U

 

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